The History of Bharatpur Rajasthan- Lohagad Fort

By | August 2, 2021

History of Bharatpur- Rajasthan

मैं भरतपुर हूं। … मेरा जन्म सन 1747 ईस्वी में महाराजा सूरजमल के द्वारा किया गया। मेरा अतीत बड़ा ही गौरवशाली, वीरतापूर्ण एवं ऐतिहासिक रहा है। मेरे बलिदानी कृत्यों एवं देशभक्ति की गूंज राजस्थान में ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण भारतवर्ष में गूंजती है। मेरी स्थापना रक्त और आंसुओं से हुई है। जिस दिल्ली की ओर आँख उठाने का भी किसी में साहस नहीं होता था, उसका कई बार भाग्य मेरे हाथों में कैद रहा है। दिल्ली की नाक के नीचे मेरा जन्म औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीतियों एवं बहन-बेटियों की इज्जत बचाने के रूप में हुआ।

मैं भरतपुर हूँ, जिसे न मुगल, पठान, मराठा व अंग्रेज भी नहीं जीत सके। मेरे जन्म से लेकर देश की आजादी तक भारतवर्ष में मैं वह भाग्यशाली एवं गौरवशाली भरतपुर हूँ जिस पर एक ही पचरंगी ध्वज फहराने का गौरव प्राप्त है। सन 1805 में मेरे ही वीर रणबांकुरों ने लार्ड लेक जैसे अंग्रेजी सेनापति का एक वार ही नहीं, तीन-चार बार मान धूल में मिलाया था। पूरे भारतवर्ष में दिल्ली जितने एवं अंग्रेजों से युद्ध कर उन्हें पराजित करने का एक मात्र श्रेय मुझ भरतपुर को जाता है। तभी तो मुझे लोहागढ़ के नाम से भी जाना जाता है। मुझ भरतपुर की कहानी बड़ी संघर्ष पूर्ण विस्मरणीय एवं रोचक है।

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History of Bharatpur- Rajasthan

देश के स्वतंत्रता संग्राम में सर्वाधिक योगदान रहा है। यहाँ पर सन 1939, 1942, 1947 में बहुत बड़े-बड़े संघर्ष और सत्याग्रह हुए। हजारों की संख्या में सत्यग्राही जेल गए, लम्बी अवधि तक जेल की यातनाएं सही और भुसावर के रमेश स्वामी को तो प्राणो का बलिदान तक देना पड़ा। इतना ही नहीं एक बार तो निरंतर 17-18 दिनों तक बाजार की हड़ताल रही। मुझ भरतपुर ने देश को स्वतंत्र कराने में अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया। मैं भरतपुर हूँ। 17 मार्च 1948 को मत्स्य राज्य का हिस्सा रहा मेरे साथ अलवर, धौलपुर, करौली भी सम्मिलित थे। मुझ भरतपुर के महाराजा कर्नल सवाई बृजेन्द्र सिंह की पहल पर धौलपुर नरेश उदयभान सिंह राणा को राज प्रमुख बनाया गया। जब 30 मार्च 1949 को राजपूताने की रियासतों का एकीकरण करके राजस्थान का निर्माण हुआ तब मुझ भरतपुर ने अपने राजकोष का अस्सी लाख रुपए भारत सरकार को प्रदान किये। राजस्थान के किसी भी शासन ने इससे अधिक राशि सरकार को नहीं दी। मैंने भरतपुर राजवंश की वह चाँदी की बग्घी जिसमे बैठकर मेरे महाराजा दशहरा पर शोभायात्रा निकाल कर अपनी जनता जनार्दन से मिलते थे। वह बग्घी मेरे अंतिम नरेश सवाई बृजेन्द्र सिंह ने भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को भेंट कर दी, जिसमे राष्ट्रपति बैठकर कई वर्ष गणतंत्र वर्ष पर परेड की सलामी लेने राष्ट्रपति भवन से आयोजन स्थल तक जाते थे। ऐसा विनम्र देशभक्त हूँ, मैं भरतपुर।

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Lohagarh Fort Bharatpur History

मुझे अपने गर्व एवं देशभक्ति की एक घटना और स्मरण हो आई है। 16 मई 1857 को जब कप्तान निक्सन भरतपुर की सेना लेकर राष्ट्रीय विप्लव का दमन करने मथुरा पहुंचा, कोसी की ओर इस मंतव्य से आगे बढ़ा कि आगरा और दिल्ली के मध्य मार्ग को स्वतंत्रता सेनानियों से मुक्त कर दिया जाए। उस समय मेरी भरतपुर सेना ने राष्ट्रभक्ति का पालन करते हुए निक्सन के आदेश को मानने से इंकार कर दिया। मेरी सेना ने दिल्ली की ओर जाते स्वतंत्रता सेनानियों का स्वागत किया। आजादी की जंग को आगे बढ़ाया

मैं भरतपुर हूँ। ब्रज संस्कृति के पोषण, रक्षण और परिवर्द्धन में मेरा अविस्मरणीय योगदान रहा है। ऐतिहासिक कलात्मक मंदिर, महल, भवन छतरियां और सरोवर मेरे यशस्वी नरेशों के ब्रज संस्कृति के प्रति अनुराग के ज्वलंत उदहारण है। राजस्थान की कला संस्कृति एवं पुरातात्विक धरोहरों में मेरा महत्वपूर्ण योगदान है। मैं भरतपुर बोलता हूँ केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान के रूप में जो चिड़ियों का स्वर्ग है। सुजानगंगा जैसी नहर विश्व में नहीं है जिसके दोनों ओर बनी विशाल ऊँची दीवारें अन्यत्र नहीं। स्वतंत्रता संग्रामों में जो वीरोचित आत्योत्सर्ग किया है, उसका उदाहरण राजस्थान के अन्य क्षेत्रों में दुर्लभ है।

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भरतपुर का इतिहास – आखिर कैसे बना भरतपुर

  • राजस्थान के पूर्वी भाग – भरतपुर, धौलपुर, डीग आदि क्षेत्रों पर जाट वंश का शासन था। यहाँ जाट शक्ति का उदय औरंगजेब के शासन काल में हुआ। जाट सरदार चूड़ामन ने थून गाँव (नगर तहसील) में किला बनाकर अपना राज्य स्थापित कर लिया।
  • चूड़ामन के बाद 1722 ई. में बदन सिंह को जयपुर नरेश सवाई जयसिंह ने डीग की जागीर दी एवं “ब्रजराज” की उपाधि प्रदान की तथा उन्हें वहां का शासक नियुक्त किया। बदनसिंह ने थून के स्थान पर डीग को अपनी राजधानी बनाया एवं वहां किले का निर्माण कराया। बदन सिंह ने 1725 ई. में डीग के महलों का निर्माण कराया। डीग के महल आज भी अपने रंगीन फव्वारों के लिए प्रसिद्द है।
  • दन सिंह के पुत्र सूरजमल ने सोगर के निकट 1733 ई. में दुर्ग का निर्माण करवाया, जो बाद में भरतपुर के दुर्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बदन सिंह ने ऐसे अपनी राजधानी बनाया। इसने जीते जी अपने पुत्र सूरजमल को सत्ता की बागडोर दे दी।
  • महाराजा सूरजमल ने 12 जून, 1761 ई. को आगरे के किले पर अधिकार कर लिया। महाराजा सूरजमल सन 1763 ई. में नजीब खां रोहिला के विरुद्ध हुए युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए।
  • महाराजा सूरजमल के बाद उनका पुत्र जवाहर सिंह भरतपुर का राजा बना। इसने विदेशी लड़कों की एक पेशेवर सेना तैयार की।
  • 29 सितम्बर 1803 ई. में यहाँ के शासक रणजीत सिंह ने अंग्रेजों से सहायक संधि कर ली।
  • राजस्थान में सर्वप्रथम भरतपुर राज्य के महाराजा रणजीत सिंह के साथ 29 सितम्बर, 1803 ई. को लॉर्ड वेलेजली ने सहायक संधि की।
    इस संधि की शर्तों के विरुद्ध भरतपुर के शासक रणजीत सिंह ने 1804 में यशवंतराव होल्कर को अपने यहाँ शरण दे दी। व् उसे अंग्रेजों को समर्पित करने से मना कर दिया
  • इस पर लॉर्ड लेक के नेतृत्व में अंग्रेजों ने भरतपुर पर 5 भयंकर आक्रमण किये तथा 5 माह तक भरतपुर दुर्ग पर घेरे डाले रखा। अंग्रेजी सेना पांच माह के घेरे के बाद भी भरतपुर दुर्ग को नहीं जीत सकी। अंततः 17 अप्रैल, 1805 को घेरा उठा लिया गया एवं भरतपुर के साथ अप्रैल, 1805 में नई संधि पर हस्ताछर हुए जिसमे भरतपुर की पूर्व की स्थिति रखी गई। तब से भरतपुर दुर्ग का नाम लोहागढ़ दुर्ग हो गया।
  • स्वतंत्रता के बाद भरतपुर का मत्स्य संघ में विलय हुआ जो 1949 में राजस्थान में शामिल हो गया।

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